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निचोड़


                                                


आमुख :-


विचार शून्यता, खामोशी और कोलाहल की स्थिति में भी कुछेक भाव या उसकी स्फुरणा मानस पटल और हृदय की धड़कनों पर अचानक से नृत्य करने लगते हैं। इनसे निपटने की एक ही युक्‍क्ति तब दिखती है; वह है इनको न्यूनत्तम शब्दों में मूर्त रुप देना यानि लिपिबद्ध करना। उक्त भाव या स्फुरणा की उपयोगिता, प्रासंगिकता और विशेषता पर ऐसे में ज्यादा विचार करने का न ' स्कोप' रहता है और न ही 'जस्टीफिकेशन '। विगत्‌ तीन बरसों से यूँ ही लिखने मैं निमग्न रहा। अब जब इसे एक पुस्तक के रुप में छपवाने चला तब इसके आकार प्रकार को आकर्षक बनवाने के क्रम में जहाँ जिस तरह की गुंजाइश दिखी वहाँ काँट-छाँटकर आपके सन्मुख परोस रहा हूँ। इस पुस्तक में जितने भी लेख हैं सारे के सारे अलग रंग-रुप वाले है; एक दूसरे से कहीं भी मेल नहीं दिखता। इनमें मैं विशेष सजावट करता भी कैसे ? बस उनकी मूल प्रकृति में ही उनको छोड़ दिया। ख्याल में जो भाव आये उन्हीं को आधार बनाकर लिखना था। अतणएव एक भी लेख दो पृष्ठ से ज्यादा लम्बा नहीं है। मैंने इनके साथ खींचातानी करना उचित न समझा। इनके लघु रुप को देखकर मुझे लगा कि पुस्तक का शीर्षक 'निचोड़' ज्यादा उचित होगा, जमेगा और प्रासंगिक भी होगा।

इतना मैं ताल ठोक कर कह सकता हूँ कि पुस्तक में प्रतिपादित सारे लेख जीवन से जुड़े हैं; कुछ में मेरी स्मृति और प्रसंग भी आ धमके हैं पर कोई भी अप्रासंगिकता के आवरण में लिपटा नहीं दिखता। सब बड़े बेबाक से दिखते हैं अपने-अपने संदेश के बिगुल बजाने में। पाठकगण उस आवाज को अवश्य सुन पायेगें। शायद उनको कर्णप्रिय भी लगे; रस भी मिले।

अन्ततः आप अपना सुझाव देने में कृपणता नहीं करेगें। इसी उम्मीद के साथ आप से विदा लेता हूँ।


गंगेश्वर सिंह


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